–देवेन्द्र कुमार बुडाकोटी
भारत में अधिकांश बड़े मुद्दे—चाहे वे नीति से जुड़े हों या अधिकारों से—अंततः सर्वोच्च न्यायालय की चौखट तक पहुंचते हैं। आश्चर्य की बात है किस्थानीय निकायों से जुड़े आवारा कुत्तों का मामला भी अब देश की सर्वोच्चअदालत तक पहुंच गया है। यह न केवल नगरपालिका कानूनों की कमजोरीको दर्शाता है, बल्कि स्थानीय प्रशासन की अक्षमता को भी उजागर करताहै।
भारत में दुनिया में सबसे अधिक आवारा कुत्ते और बिल्लियां पाई जाती हैं।इसके साथ ही, भारत में रेबीज से होने वाली मौतों की संख्या भी विश्व मेंसबसे अधिक है—लगभग 36%। यह आंकड़े इस समस्या की गंभीरता औरव्यापकता को दिखाते हैं, जो अब सिर्फ स्थानीय मुद्दा नहीं, बल्कि एकसार्वजनिक स्वास्थ्य संकट बन चुका है।
पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 और एनिमल बर्थ कंट्रोल (कुत्ते) नियम, 2001 जैसे कानून आवारा कुत्तों को कानूनी सुरक्षा प्रदान करते हैं।ये कानून उनके स्थानांतरण, हटाने या मारने पर रोक लगाते हैं। हालांकि येकानून मानवीय दृष्टिकोण से बनाए गए हैं, परंतु बढ़ती जनसंख्या और कुत्तोंके हमलों के बीच ये कानून आम जनता की सुरक्षा से टकराने लगे हैं।
11 अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली और एनसीआर की सड़कों सेसभी आवारा कुत्तों को हटाकर शेल्टर में रखने का आदेश दिया। इस आदेशके खिलाफ जानवरों के अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओंऔर पालतू पशु प्रेमियों ने विरोध प्रदर्शन किया। ऑस्ट्रेलिया के प्रसिद्ध पशुअधिकार कार्यकर्ता फिलिप वोलन ने भी चिंता जताते हुए कहा कि ऐसेशेल्टर “यातना गृह” बन सकते हैं।
शहरी पालतू पशु प्रेमियों की प्रतिक्रिया भावनात्मक रूप से इस डर परआधारित थी कि कहीं उनके पालतू ‘रॉकी’, जो घर के अंदर रहते हैं औरअंग्रेजी कमांड जैसे “कम”, “बैठो”, “शेक हैंड” को समझते हैं, भी इस आदेशकी चपेट में न आ जाएं। जबकि ग्रामीण ‘टॉमी’, जो पूरे गांव का हिस्सा हैऔर खुले में घूमता है, उसे लेकर कोई चिंता नहीं जताई गई।
इस आदेश पर तीखी प्रतिक्रिया के चलते, पहले दिए गए दो न्यायाधीशों केफैसले को रोक दिया गया और अब प्रधान न्यायाधीश ने तीन न्यायाधीशोंकी पीठ गठित की है। अब सभी पशु प्रेमियों को इस पर आने वाले अंतिमनिर्णय का इंतजार है।
यह पूरा प्रकरण शहरी मध्यम वर्ग की ताकत को भी दर्शाता है, जो मीडियाऔर न्यायालय के माध्यम से अपनी बात प्रभावी ढंग से उठा सकता है।लेकिन जरूरत इस बात की है कि यही वर्ग अन्य सामाजिक मुद्दों जैसे किसड़क पर रहने वाले बच्चे, भिक्षावृत्ति, बेघर लोग, और सड़क सुरक्षा जैसेविषयों पर भी उतनी ही जागरूकता दिखाए।
इन नागरिक समूहों को संस्थागत रूप देना चाहिए, ताकि ये न केवलजानवरों के लिए बल्कि अन्य जनहित मुद्दों के लिए भी आवाज़ उठा सकेंऔर इनकी बात विधायकों तक पहुंचे, जिससे प्रभावी सार्वजनिक नीति बनसके।
जो मुद्दा स्थानीय स्तर पर सुलझना चाहिए था, वह अब राष्ट्रीय बहस बनचुका है। जानवरों की सुरक्षा जरूरी है, लेकिन इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य, सुरक्षा और प्रशासनिक क्षमता के साथ संतुलित करना भी उतना हीआवश्यक है।
