अयोध्या -भारत में ज्ञान मार्ग एवं भक्ति मार्ग के अनेक आचार्य हुए है ज्यादातर आचार्य हमारे दक्षिण भारत में और भगवान के अवतार उत्तर भारत में हुए है। जगत गुरु आदि शंकराचार्य ने आठवीं सदी में ब्रहम सत्यम जगन मिथ्या बम्हैव जीवों नापरः अर्थात ब्रहम सत्य है संसार झूठा है। और जीव ब्रहम से अलग नहीें है। इस सिद्धान्त को भारतीय दर्शन में अद्वैतवाद कहा गया। इस ज्ञान मार्ग के सिद्धान्त के विपरीत लगभग 14 से 16 सदी के मध्य चार भक्ति मार्ग के आचार्य हुए। जिसमें रामानुजाचार्य, माधवाचार्य, निम्बकाचार्य, एवं वल्लभाचार्ज जी का स्थान आता है। आज मै अपने विशिष्ट लेख में वल्लभाचार्य जी के जीवन पर प्रकाश डालता हूं। हमारे भारतीय दर्शन की विशेषता रही है। कि जिसको पाना है उसको खोना पड़ेगा। जैसे भगवान राम पुरुषोत्तम राम कहलाने के लिए सर्वप्रथम महर्षि विश्वामित्र के साथ अपना प्रथम चरण का गृह त्याग किया उस समय किशोरावस्था में राजमहल का एवं परिवार का त्याग किया उसी मे कलांतर में 14 वर्ष के लिए राजगद्दी का त्याग किया।
उसी प्रकार जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने अपने वैशाली राज्य के राजवैभव के रुप में राज्य का त्याग किया और कहा कि यदि कुछ पाना है तो कुछ छोड़ना ही पड़ेगा और सिद्धान्त दिया जीओं और जीने दो। किसी के जीवन में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप न होने दो। ठीक लगभग उनसे 30 वर्ष छोटे कपिलवस्तु के लुम्बिनी में पैदा हुए राजकुमार सिद्धार्थ ने अपने अल्प नवजात शिशु पुत्र राहुल और पत्नी का त्याग किया तथा बाद में गौतम बुद्ध कहलाये।
‘‘भारतीय दर्शन’’ के विषय में देश के द्वितीय राष्ट्रपति जो आज भी विदेशों में जो भारत के चार महापुरुष पढ़ाये जाते है उनमें सम्मानित भारत रत्न डा राधाकृष्णन ने अपने प्रसिद्ध पुस्तक भारतीय दर्शन के अंग्रेजी संस्करण के 632 पेज पर लिखा है कि भारतीय दर्शन मुख्य रुप से ‘‘त्याग कोटि चतुष्कोटि विर्नमुक्तया’’ अर्थात भारतीय दर्शन त्याग का एवं चतुष्प्रकार के संस्कृत का सृजनहार है। इसके बगैर किसी भी समाज के सर्वांगीण तत्व की चर्चा नहीं की जा सकती है। उसी में से उन्होने वल्लभाचार्य जी के बारें में लिखा कि वल्लभाचार्य जी का सन् 1479 में होता है। तथा इन्होने अपने 10 से 11 वर्ष की उम्र में वेद वेदान्त भारतीय दर्शन का कुल अध्ययन कर लिया तथा दक्षिण भारत के तत्कालीन प्रसिद्ध राज्य विजयनगरम में महाराजा कृष्णदेवराय के दरबार में तत्कालीन समय के सभी विद्वानों को शास्त्रार्थ में हरा कर 18 वर्ष की उम्र में उस राज्य का आचार्यत्व/राजपुरोहित का स्थान प्राप्त किया। वह स्थान माहत्मा चाणक्य की तरह इनको जीवन भर नहीं भाया। इन्होने 10 साल बाद उस पद का स्वेच्छा से त्याग कर दिया और जगद्गुरु शंकराचार्य सिद्धान्त पर अद्वैत वाद के सामने विशिष्टा द्वैत की स्थापना की। जिन्होने श्रीमद्भागवतम पर ‘‘सुबोधिनी टीका’’ लिखी एवं ब्रहम सूत्र तथा अणुभास्य की रचना की। जो भक्ति मार्ग का प्रमुख गं्रथ है। इनकी चर्चा से प्रभावित होकर तत्कालीन कृष्ण भक्ति के अन्नय गायक महत्मा सूरदास जी ने इनको अपना गुरु के रुप स्वीकार कर कृष्ण भक्ति की शास्वत नदी बहाई। महागुरु वल्लभाचार्य जी ने अपने जीवन के काल में लगभग पूरे आर्यावर्त का तीन बार भ्रमण किया। तथा भारतवर्ष में 84 जगह पर प्रसिद्ध स्थानों पर श्रीमद्भागवतम का उपदेश दिया। जिसमें 24 स्थान ब्रजनाभ क्षेत्र/ब्रजमण्डल में स्थित है। जो मुख्य रुप से मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, नंदगांव एवं बरसाने में है। इन सभी स्थानों को महागुरु वल्लभाचार्य का बैठका के रुप में पूजनीय स्थल है तथा वहां पर पुष्टिमार्ग/भक्तिमार्ग के आचार्य अभी भी मौजूद है तथा जब हम 84 कोस की परिक्रमा करते है तो उनका हम दर्शन कर सकते है। आज हमें इस लेख लिखने का मुख्य उद्देश्य है। कि दिनांक 7 मई 2021 को वरुथनी एकादशी है। इसी एकादशी के दिन इनका जन्म 1479 में हुआ था। तथा ऐसी मान्यता है कि इसी एकादशी के दिन 1531 में इनका साकेतवास हुआ। आपके द्वारा कुल जीवन के 52 साल में से लगभग 25 साल तक भक्ति मार्ग को दिया गया।
उसमें से महामहिम कृष्ण भक्ति के अमर गायक सूरदास जी जैसे शिष्य इस आर्यावर्त को दिये गये। सूरदास ने अपने पद/भजन के 180 पद में लिखा है 16वीं सदी में अपने पद में लिखा कि जो आजकल कोरोना का दौर चल रहा है। लिखा है कि रे मन धीरज क्यों न धरै, सम्वत 2 हजार के उपर ऐसो योग पड़े। पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण चहुं दिसि काल परै। ऐसी भविष्य वाणी वल्लभाचार्य जी के प्रिय शिष्य ने की है जो आज हम सभी को देखनी पड़ रही है।
आचार्य श्री ने अपने सिद्धान्त में यह कहा है कि ब्रहम एवं जीव दोनो को शास्वत है। एक पूर्ण है एक उसी का अंश पर दोनो का गुण विशेषता समान है। आज हमारा समाज केवल भौतिक जगत पृथ्वी जल वायु आकाश अग्नि के लिए कार्य कर रहा है। लेकिन वास्तव में ब्रहम एवं जीव तत्व के लिए 95 प्रतिशत व्यक्ति कुछ भी कार्यक्रम नहीं कर रहे है। क्योंकि वेदान्त एवं श्रीमद्भागवत गीता का मूल तत्व है कि जीवन है तो मृत्यु का तकाजा है यदि पद है तो पद से निवृति का तकाजा है यदि सुख है तो दुख का तकाजा है और कोई भी ब्रहम एवं जीव तत्व के मध्य में सृजन हुआ है तो उसका अंत निश्चित है। भगवान ने अपनी महामाया से 84 लाख योनिया बनायी। सभी का गुण दोष के आधार पर कार्य दिया। उसमें से सबसे प्रखर मतिष्क का मनुष्य बनाया पर मनुष्य ने अपने ही बनाये जाल में अपने दैहिक जीवन को फंसाता गया और दैविक जीवन को भूलता गया। क्योकि कोई भी संत महात्मा जब साधना करता है तो आडम्बर से दूर हो जाता है। यदि वल्लभाचार्य जी विजय नगर राज्य के केवल राजपुरोहित होते तो आज आर्यावर्त में इन्हें कोई नहीं जानता। लेकिन इन्होने भगवान राम भगवान महावीर, भगवान गौतम की तरह राज्य का त्याग किया एवं एक गुरु के रुप में आज स्थापित है। आज के समस्त वैष्णव एवं शैव संतों से अपील है कि वे आत्मतत्व अपने शिष्यों में जगाये और वाह्य तत्व से दूर रहे। जब हमारे मुस्लिम काल में अनेक वैष्णव संत महात्मा हुए जो आज भी पूजित है पर आज हमारे वर्तमान काल में ऐसी क्या कमी है कि संत अपनी आराधना भक्तिमार्ग को छोड़कर राजसत्ता के पीछे भागता है। अनेक मेरे भी परिचित संत है क्योंकि मै अपने सेवा काल में उत्तर प्रदेश के सभी धार्मिक स्थानों यथा काशी, मथुरा, प्रयाग, हरिद्वार, अयोध्या, नैमिशारण्य शूकर क्षेत्र, चित्रकूट आदि पवित्र स्थानों में एवं कुम्भ मेला में तैनात रहा हूं। आज का संत पूछता है कि हमें फलाने राजसत्ता से क्या लेना चाहिए। तथा क्या मिल सकता है जब आप परमसत्ता के लिये सबकुछ छोड़ चुके है तो इस खोखली राजसत्ता में क्या रखा है। हमेशा संत समाज राज सत्ता को निर्देशित किया है पर आज हमें यदि वास्तव में आर्यावर्त भूमि का बचानी है। सनातन संस्कृति को बचानी है तो आत्मतत्व संस्कृति को जगानी पड़ेगी। अन्यथा तीन दशक बाद खुली सांस लेना मुश्किल हो जायेगा। क्योंकि आपकी सनातन पद्धति ही इतिहास के पन्नों में हडप्पा मोहन जोदड़ो की तरह एक मिथक बन जायेगी। हमें प्रभु तत्व को अपनाते हुए कोरोना ही नहीं सभी महामारियों के नाश करने के लिए आगे आना होगा।
जय हिन्द जय भारत जय सनातन धर्म, जय गुरु परम्परा
नोट- लेखक का परिचय डा0 मुरलीधर सिंह (स्वामी जी): लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में प्रथम श्रेणी के अधिकारी है तथा इसके पूर्व भारत सरकार में भी रहे है तथा उत्तर प्रदेश के विभिन्न जनपदों में लगभग 30 वर्ष से सेवा दिये है और वर्तमान में अयोध्या के साधनाश्रम के सह संस्थापक तथा श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास के सदस्य श्री परमानंद जी के शिष्य परम्परा से आते है तथा उनके प्रेरक त्रिदण्डी स्वामी जी, बालमुकुन्द दास, प्रभुदास, प्रभुपाद आदि हिन्दुस्तान के प्रमुख वैष्णव संत है।